आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बनाम निसर्ग और धर्म
आजकल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा स्वचालित मशीनों को बनाने की होड़ सी लगी हुई है। जैसे खाना बनाने वाली मशीन, जिसमे आप पाक कृति डाल दें और वह मशीन आपके लिए वह भोजन बना देगी। या मैन्युफैक्चरिंग के अलग अलग काम जो रिपिटिटीव होते है, उनको मशीनों से करवाने की कोशिश हो रही है। या किसी रेल स्टेशन का सूचना केंद्र है उसमे किसी रोबोट को बिठा दिया जाय तो वह उपलब्ध जानकारी को पूछनेवाले यात्री को बता सकेगा। यहां तक तो ठीक है कि इंसानों से किए जानेवाले काम आप स्वचालित यंत्रों से करवाएं लेकिन इससे आगे यह सोचना की यंत्रों में, जिसे अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस नाम दिया जा रहा है, मनुष्यों की तरह संवेदनाएं निर्मित की जा सकेंगी सरासर मूर्खता है।
बिल गेट्स और मार्क जुकरबर्ग जैसे लोग भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विषय में मानते हैं कि मनुष्यों जैसी संवेदनाएं यंत्रों के भीतर निर्मित की जा सकेंगी। वे यह भी मानते है कि यंत्र भी कभी स्वतंत्र रूप से सोचेंगे और व्यवहार करेंगे।
अब तो उन्होंने ऐसी धारणा बनाई है कि यंत्र आगे विकसित होकर मनुष्यों से अधिक प्रगट प्रजाति बनेंगे। असल में वे जो भी बनाएंगे वो मनुष्य जैसा दिखने का आभास निर्मित करने वाले यंत्र हैं। इससे ज्यादा और कुछ नही।
आध्यात्मिक ज्ञान और साधना का अभाव ही इस तरह की भ्रांतियां निर्मित होने का कारण है।
आप को आम का पेड़ लगाना है तो आम ही बोना पड़ता है, पत्थर, कंकड़, या हीरा भी बोओगे तो आम का पेड़ नहीं उगता। यही अंतर सजीव और निर्जीव के बीच है।
निर्जीव वस्तु कितनी भी परिष्कृत हो, वह एक दिन सजीव नही बनती।
संवेदना सजीव का लक्षण है। एक केंचुवे को भी संवेदना होती है, दुनिया के सभी सजीव प्राणियों में संवेदना होती है। इस शब्द प्राणी को समझें। जिसमे प्राण होता है वह प्राणी है। मनुष्य प्राण को निर्मित नही कर सकता। ना ही आप कृत्रिम शरीर का निर्माण कर सकते है। निसर्ग में भिन्न भिन्न शरीरों का निर्माण हुआ है, यह पूरी तरह से नैसर्गिक घटनाएं हैं। इसमें मनुष्य का कोई दखल नहीं है।
अगर आप सोचते हों कि किसी उद्योगपति के किसी बात के मानने से आपको क्या फर्क पड़ता है, तो आपको बता दूं कि कल परसों मार्क जुकरबर्ग ने अपनी कंपनी मेटा जो फेसबुक की ओनर है, उसमे से ११ हजार कर्मचारियों को निकाल दिया।
क्यों कि मार्क जुकरबर्ग इंटरनेट पर एक ऐसा फीचर बनाने पर लगा था जो फेल हो गया, जिसमे लोग अपने घर में बैठ कर, आंखों पर स्क्रीन लगा हुआ चश्मा लगा कर, जैसे कंप्यूटर में गेम खेलते है उस तरह से अन्य लोगों के साथ इंटरेक्ट करें। तो उसका मेन आइडिया यह कि लोग अपने अपने घरों में बैठकर किसी मल्टीप्लेयर गेम की तरह वास्तविक लोगों के साथ बातचीत और व्यवहार करें।
इस प्रोजेक्ट में पिछले कई सालों से उसने हर साल १० अरब डॉलर खर्च किए। ये पैसे किसके थे, उनके जिन्होंने फेसबुक या मेटा के शेयर्स खरीदे।
तो जब कोई धनी उद्योगपति किसी मूर्खतापूर्ण धारणा को लेकर बैठ जाय तो वह अपने साथ सारे इन्वेस्टर्स का भी भट्टा बिठा देगा।
इसलिए निसर्ग के नियमों के अनुसार जो संभव है वही घटेगा, आपके पास पैसा और ताकत हो तो भी आप निसर्ग के नियमों को नही बदल सकते। टेक्नोलॉजी से हम निसर्ग के भीतर अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने का प्रयास कर सकते है। जो निसर्गतः संभव ही नहीं है, उसे करने का प्रयास अंततः असफल होगा।
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