दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय
जर्मनी के चांसलर इस समय चीन की यात्रा पर हैं. इस समय जर्मनी की हालत दो पाटों के बीच फंसे हुए दाने की तरह बनी हुई है. और यह दाना खुद इन पाटों के बीच में कूद गया था.
जर्मनी की अर्थव्यवस्था उसके इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन पर निर्भर है. दुसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने बड़ी तेजी से अपना विकास किया और वह यूरोप का सबसे अमीर देश बन गया. उसके इस विकास के दो बड़े कारण थे. एक तो उन्होंने रशिया से तेल और प्राकृतिक गैस का आयात शुरू किया जिससे उनकी फैक्ट्रीयों को इंधन मिलता रहा. दुसरा उन्होंने चीन में जाकर अपनी फॅक्ट्रियां खोली, जिससे उनके सामान का उत्पाद खर्च काम आता और फिर उन्हें वे चीन में बेचते और दुनिया के दुसरे देशों को निर्यात करते. यह सब वर्षो तक सुचारू रूप से चलता रहा.
लेकिन जब अमेरिका ने चीन से दुरी बढानी शुरू की तो धीरे धीरे अमेरिकी निवेश चीन से कम होने लगा. जर्मनी अमेरिका के साथ नाटो संगठन का सदस्य है, यानि अगर नाटो के किसी सदस्य देश का किसी अन्य देश से युद्ध हो तो नाटो के अन्य देशों को उस युद्ध में शामिल होना पड़ता है. साथ ही जर्मनी 5 Eyes नाम के एक संगठन का भी सदस्य है, जो दुनियाभर के देशोंपर जासूसी करता है और आने वाले खतरों के बारे में सदस्य देशों को सचेत करता है. तो जर्मनी के यूरोपीय संगठन के सदस्य होने के उपरांत भी, जब पश्चिमी जगत के अन्य देश चीन से दूरी बढ़ने में लगे थें तब चुपके से जर्मन कंपनियां चीन में अपना निवेश बढाती रही थी.
इसी वर्ष में जर्मनी ने अपने चीनी निवेश में ३० प्रतिशत की वृद्धि की. तो इसे कहते है आग में कूद पड़ना. इनके निवेश पर कोई बुरा असर तब तक नहीं दिखा जब तक रशिया ने युक्रेन पर हमला नही किया. इस हमले के बाद जर्मनी को रशिया से मिलने वाले तेल और प्राकृतिक गैस का सप्लाय खंडित हुआ, इससे जर्मन कंपनियों को आवश्यक इंधन मिलने में रुकावट आयी. इस वर्ष जर्मनी की GDP 1.9% पर आ गयी है और अगले वर्ष का अनुमान 1.7% है.
अब अमेरिका ने रशिया के साथ साथ चीन से भी पंगा लेने की ठानी है. और इस समय जर्मनी की लगभग 5000 कंपनिया चीन में हैं. जर्मनी का सबसे बड़ा इम्पोर्टर इस समय चीन है. तो अन्य यूरोपीय देशों के विरोध करने पर भी मजबूरी में, अपनी कंपनियों की अर्थ व्यवस्था को डगमगाने से बचने के लिए जर्मन चांसलर को चीन की यात्रा करनी पड़ रही है. और अगर आगे अमेरिका और चीन के बीच का संघर्ष और तनाव बढ़ता है तो इन जर्मन कंपनियों की हालत दो पाटों के बीच फसे हुए दानों के जैसी हो सकती है. वैसे संत कबीर कह गए हैं
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥
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