क्या ये सही मार्ग है?

हमें वाकई सोचना पड़ेगा कि अमेरिका का जो वेस्टर्न वर्क कल्चर है उससे हमारे बच्चों पर क्या असर पड़ता है. 
हमने भारत में प्राचीन काल से ज्ञान एवं कुशलता का सम्मान किया है। जब तक समाज स्थिर था, युद्ध आदि से बिखर ना गया था तब समाज के विभिन्न वर्ग अपनी अपनी कुशलता से एक दूसरे को सहयोग देते और एक दूसरे की आजीविका में सहयोग देते। आम तौर पर किसी व्यक्ति को किसी एक कार्य में कुशलता उसकी आजीविका के लिए पर्याप्त होती। हमने आयुर्वेद, योग, नाट्यशास्त्र संगीत और साथ ही रोजमर्रा की उपयोगी विधाएं जैसे कुम्हार, लुहार, बुनकर, लकड़ी के कारीगर भी अदभुत कुशलता से अपने अपने काम करते देखे। शायद ही समाज का कोई वर्ग अप्रत्याशित रूप से धनी होता था, लेकिन सभी वर्गों को पर्याप्त आजीविका एवं उचित सम्मान मिलता था। 
अब तक की जितनी कार्य कुशलताएं थीं उनमें सीखने का शुरुआती समय होता था, फिर लगभग जीवन भर वह व्यक्ति उस काम को अपनी आजीविका के तौर पर कर सकता। 
दुर्भाग्य से इलेक्ट्रॉनिक्स और कंप्यूटर और उससे जुड़े सॉफ्टवेयर का विकास पश्चिम की सभ्यता ने आरंभ किया और उसमे जितने भी अविष्कार हुए उन पर अपना एकाधिकार जताना शुरू किए। उन्होंने पेटेंट की प्रक्रिया का आरंभ किया। याने अगर कोई व्यक्ति किसी बात को दूसरों से पहले कर लेता है तो उस काम पर वह एकाधिकार जाता सकता है। इससे अन्य लोगों को वही काम पहले वाले व्यक्ति से करवाने की बाध्यता होती या फिर उसे लाईसेंस फीस देनी पड़ती। 
इस विचित्र पद्धति से दुनिया भर में पेटेंट राज चला जो आज हमारे जीवन में खरीदे जाने वाले हरेक वस्तु पर उसके मूल्य का कुछ अंश लाइसेंस फीस की तरह उस वस्तु के पेटेंट धारक को जाता है। इससे अतिरिक्त महंगाई बढ़ती है और उसी वस्तु को स्थानिक उत्पादक बिना लाइसेंस फीस के बना भी नही सकते। आम तौर पर इसे अच्छी बात माना जाता है और इससे अविष्कार करनेवाले व्यक्ति या संस्था को जो अतिरिक्त लाभ होता है उससे वे संशोधन पर खर्च सकते है। यह अब तक चला आ रहा है। और हम देख रहे है कि व्यर्थ की चीजें बनाने वाले लोग दुनिया के सर्वाधिक धनी लोगों में गिने जाते हैं। सॉफ्टवेयर बनाने के लिए ऐसा कितना खर्चा या पैसा या श्रम करना पड़ता है जिसके पेटेंट मात्र के आधार पर बिल गेट्स जैसे मूढ़ लोग कई दशकों से दुनिया के सर्वाधिक धनाढ्य बने बैठे है। अगर उनके उत्पादों की ही तुलना करें तो रिचर्ड स्टॉलमैन नमक एक व्यक्ति ने लोगों को सॉफ्टवेयर फ्री में मिल सके इस भावना से फ्री सॉफ्टवेयर फाउंडेशन बनाया, फिर लायनस ट्रॉवल्ड जैसे स्कूली बच्चों ने उसमे अपना योगदान दिया, फलस्वरूप लिनक्स का निर्माण हुआ। कुछ एक लोगों ने अपने श्रमदान से सभी तरह के सॉफ्टवेयर बनाकर उन्हें फ्री में उपलब्ध कराया। 
आज अगर हम पश्चिम के इस अंधकारमय कार्य पद्धति से बाहर निकलना चाहते है तो हमें वेद और उपनिषदों के ऋषियों का स्मरण करना होगा। सॉफ्टवेयर को पश्चिम के इस नागपाश से मुक्त करना होगा। सॉफ्टवेयर एक बार बन जाने पर उसे बिना किसी अतिरिक्त खर्च से दुनिया के सभी लोगों को वितरित किया जा सकता है। भारत सरकार अगर चाहे तो वह एक ऐसी कंपनी का निर्माण करने को प्रोत्साहित कर सकती है जो फ्री सॉफ्टवेयर बनाए। विंडोज के सॉफ्टवेयर की जगह हम अगर अपने देश में बनाए हुए फ्री सॉफ्टवेयर का प्रयोग करें तो कंप्यूटर का लागत मूल्य भी कम होगा और भारत में सॉफ्टवेयर के विकास और संशोधन को चलना मिलेगी।
हमें पश्चिम के ज्ञान पर एकाधिकार करने वाली प्रवृत्ति को नकारना होगा।  मानवता के हित के लिए यही रास्ता हमे सनातन परंपरा ने दिखाया है।

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